तुम धूप हो
कभी ओस की बूँद पे चमकती हुई
कभी मरीचिका
गर्मियों के जलते दोपहर में
रास्तों को और लम्बा करती हुई
जला मैं भी
कभी होली के पापड़ की तरह
और कभी भुना मिला
भुट्टे की कालिख जैसे
सर्दिओं की दोपहरों में
अमरुद और संतरों के बीच
अपना बीज़ गिरा
मैं सूखा, पनपा
तुम्हारी तरफ पलटा
मेरा ठंडा बदन
सुकून सेकने
फिर भागा मैं
जलते लू से
वापस उसी अंधे कुएं में
जिससे निकला था
तुम्हे लपेटने को
अपने अंदर बाहर
अँधेरा बुरा सही
पर एक जानी पहचानी परछाई है
पर तुम
तुम्हे क्या कहूँ?
क्यूंकि तुम तो धूप हो।
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Indeed an irony, she is life..sometimes wonderful sometimes torturous!
Well written buddy.. 🙂